सबसे ताकतवर विवेकी, था बना इंसान तो,
फिर विधाता की बनावट में, कमी कैसे रही।
उम्दा पानी-खाद, और बेहतर निराई थी मगर,
इतने सबके बाद भी, ऊसर ज़मीं कैसे रही।
छुटपने में तो, सभी से प्यार करता था मगर,
अब बड़ा होते ही, ये नफ़रत कहाँ से आ गयी।
ख़ुद ब ख़ुद वो अपनी, कौमों का ही दुश्मन हो गया,
न जाने उसके भीतर, ऐसी ये फितरत कहाँ से आ गयी।
लगता यही है अब तो, 'लालच' मूल है इन्सान में,
जिसने उसकी सारी, अच्छाई पे परदा कर दिया।
जिसके कारण से, वो झूठा स्वाभिमानी है बना,
जिसने उसे, इन्सानियत का ही दुश्मन कर दिया।
अब तो ये आलम है के, एक दूसरे से होड़ में,
हर तरीके से हड़पना चाहता, औरों का हक।
चाहे उसकी बात में, कितना ही बह जाये लहू,
चाहे धरती नष्ट हो, या ख़तम हो सारा जग।
क्या बनाना चाहा था, पर क्या ये बनके रह गया,
ख़ुद की नाकामी में, ईश्वर भी ठगा सा रह गया।
आज वो भी है दुखी, देख इस अंजाम को,
अपनी इस रचना को, जिस पर नाज़ था भगवान को।
दीपक जोशी
01/07/2020