मंगलवार, 30 जून 2020

*वर्चस्व* (Supremacy)

सबसे ताकतवर विवेकीथा बना इंसान तो,
फिर विधाता की बनावट मेंकमी कैसे रही।
उम्दा पानी-खादऔर बेहतर निराई थी मगर,
इतने सबके बाद भीऊसर ज़मीं कैसे रही।
छुटपने में तोसभी से प्यार करता था मगर,
अब बड़ा होते हीये नफ़रत कहाँ से  गयी।
ख़ुद  ख़ुद वो अपनीकौमों का ही दुश्मन हो गया,
 जाने उसके भीतरऐसी ये फितरत कहाँ से  गयी।
लगता यही है अब तो, 'लालचमूल है इन्सान में,
जिसने उसकी सारीअच्छाई पे परदा कर दिया।
जिसके कारण सेवो झूठा स्वाभिमानी है बना,
जिसने उसेइन्सानियत का ही दुश्मन कर दिया।
अब तो ये आलम है केएक दूसरे से होड़ में,
हर तरीके से हड़पना चाहताऔरों का हक।
चाहे उसकी बात मेंकितना ही बह जाये लहू,
चाहे धरती नष्ट होया ख़तम हो सारा जग।
क्या बनाना चाहा थापर क्या ये बनके रह गया,
ख़ुद की नाकामी मेंईश्वर भी ठगा सा रह गया।
आज वो भी है दुखीदेख इस अंजाम को,
अपनी इस रचना कोजिस पर नाज़ था भगवान को।
                 
दीपक जोशी
01/07/2020

गुरुवार, 18 जून 2020

*अवसाद* (Depression)

इतनी खुदगर्ज़ी है क्योंऐसी भी क्या बात है,
किशोरों और युवाओं से बुजुर्गों तक में क्यों अवसाद है।
हर कोई मशगूल दिखताअपने-अपने में यहाँ,
जाने क्यों हासिल वो करना चाहतासारा जहाँ।
उसको जीने का सलीका भी तो  पाया नहीं
ख़ुद से भी ख़ुद का वो रिश्ताजोड़ तक पाया नहीं।
अब पड़ा कोने में गुमसुमकिसको करता याद है,
तेरी इस हालत काजिम्मेदार ये अवसाद है।
तन की मजबूती को मजबूती समझने का ये भ्रम,
टूट जाता है ज़रा मेंमन अगर बलहीन हो।
मन की मजबूती ज़रूरीइस जहाँ में दोस्तो,
कुछ भी ना हासिल यहाँमन जो शक्तिहीन हो।
तन के टीके सब लगातेतन की रक्षा के लिए,
मन के टीके भी जरूरीमन की दृढ़ता के लिए।
उसने जीवन जी लियाजिसका दिल फौलाद है,
वरना जीवन में तो फिरअवसाद ही अवसाद है।
                     
दीपक जोशी
18/06/2020

बुधवार, 10 जून 2020

*बाल-वृद्ध संघर्ष*

'लौक डाउनकी कथा सुनाऊँसबसे व्यथा निराली है,
बच्चों नेघर में बन्द-बन्दहालत पतली कर डाली है।
सुबह-शाम बूढ़े जब भीघूमने बाहर जाते थे,
अपने संग छोटे बच्चों कोखिलवाने लेजाते थे। 
बच्चों को भी दादा-दादीनाना-नानी भाते थे,
बच्चों के संग बूढ़ों के भीदिन यूँ ही कट जाते थे।
इक दिन मुआ 'कोरोनाआयाअपने संग ये आफ़त लाया,
बुड्ढे और बच्चे दोनों काबाहर जाना बन्द कराया।
उम्र का काफ़ी अन्तर हैपर फितरत एक सी होती है,
दोनों को घर से बाहर कीदुनियाँ बहुत सुहाती है।
अब घर में बन्द रहे हरदमआपस में ही लड़ते हैं,
उर्जा से भरे हुए बच्चेबुड्ढों पर भारी पड़ते हैं।
बच्चों के मम्मी-पापा का वर्कहोम से चलता है,
दिन भर बच्चों का ताण्डवबुड्ढों के सर निकलता है।
अब तो यही दुआ ईश्वर से खतम 'कोरोनाका हो खेल,
बच्चे-बुड्ढे जाँए बाहरफिर से हो दोनोें में मेल।
                   
दीपक जोशी
10/06/2020

शुक्रवार, 5 जून 2020

*अनिश्चित भय*

अजब है खेल कुदरत का गज़ब की बात है देखो,
कि इन्साँ एक दूजे से यहाँ परहेज़ करता है।
कभी रहता था जो मश्गूलसामाजिक मसायल में,
वही इन्सानअब अपनों को मिलने से भी डरता है।
किसी ने स्वप्न में सोचा  थाये दिन भी आयेंगे,
घरों में क़ैद होकर के सभीखुद को बचायेंगे।
कोई आहट भी बाहर सेअगर सुनने में आयेगी,
तो ऐसी आहटों से ख़ुद  ख़ुद घबरा से जायेंगे।
पर ये सच हुआऔर अब हुई सबकी ये हालत है,
कि खाने-पीने की चीजें भी अब संत्रास देतीं हैं।
कभी महफ़िल  मित्रों के बिनाजो जी  पाते थे,
उन्हें ये दूरियाँअब जीने का एहसास देतीं हैं।
बड़े निष्ठुरनियति के फैसलेमानव के जीवन में,
जिन्हें स्वीकार करने कोसदा तैयार रहना है।
पड़े जब भी ज़रूरतख़ुद को अनुशासित बना कर के,
समर जीवन कायूँ निर्भीक रह कर पार करना है।
                       
दीपक जोशी
05/06/2020