हाड़-मांस का पुतला है तू, क्या तुझको अभिमान रे,
एक फूँक का तेरा जीवन, बनता क्यों बलवान रे।
तू तो इक बेजोड़ सी, कारीगरी का मात्र नमूना है,
ख़ुद कारीगर ही भरमाया, ऐसी तेरी रचना है।
इक-इक चीज़ है बेशकीमती जिसे जोड़ के तू है बना,
तेरी रचना कर घमंड से, तेरा रचनाकार तना।
तुझे बनाया जिसने सोच, कितना वो महान रे।
हाड़-मांस का पुतला है तू, क्या तुझको अभिमान रे,
पंच तत्व से तुझे बनाया, ये भी अद्भुत बात रही,
सृष्टि के कण-कण से जोड़ा, ये उसकी सौगात रही।
तेरे लालन-पालन को, उसने क्या-क्या नहीं किया,
जो भी तूने चाह करी, वो सब तुझको यहीं दिया।
पंच तत्व में आकर्षण दे, पूर्ण करे अरमान रे,
हाड़-मांस का पुतला है तू, क्या तुझको अभिमान रे,
भले-बुरे का बोध, साथ में मानवता का भान दिया,
बाहर-भीतर चक्षु दिये, और आध्यात्म का ज्ञान दिया।
उन्नत दिमाग़ तुझको देकर, सम्पूर्ण जगत में ज्येष्ठ किया,
वैज्ञानिकता तेरे अन्दर लाकर, तुझको श्रेष्ठ किया।
इतना पा के ना बहके तू, तुझे नियन्त्रण के लिए,
तेरे जीवन की लगाम को ख़ुद ही अपने हाथ लिया।
तू घमण्ड में चूर, स्वयं को समझा शक्तिमान रे,
हाड़-मांस का पुतला है तू, क्या तुझको अभिमान रे।
दीपक जोशी
10/07/2020
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